मिले पकौड़े गर्म

 
 
आशा की जब आँच पर, चढ़े कढ़ाही तेल।
स्वप्न पकौड़े का करे, तब जिह्वा से खेल।।
तब जिह्वा से खेल, नहीं सामग्री पूरी।
बारिश थी भरपूर, आस पर रही अधूरी।।
पीकर खाली चाय, हृदय में भरी निराशा।
मिले चटपटा स्वाद, लगी चटनी को आशा।।


मन सावन आषाढ़ बन, करे प्रेम की वृष्टि।
लगे सजन का साथ यों, हुई समाहित सृष्टि।
हुई समाहित सृष्टि, स्वाद जीवन का ऐसा
चाय पकौड़े संग, मधुर चटनी के जैसा।।
उचित रहे अनुपात, लगे तब जीवन पावन।
त्याग समर्पण साथ, बरसता हो मन सावन।।


छोटा कोई कार्य कब, नहीं भाव हो हीन।
रोजगार आरंभ कर, उसमें हों तल्लीन।।
उसमें हो तल्लीन, बनाऐं चाय पकौड़े।
ग्राहक जब संतुष्ट, आय फिर सरपट दौड़े।।
चलती रहे दुकान, नहीं जब अंतस खोटा।
देकर अधुना रूप, बड़े में बदले छोटा।।

- अनिता सुधीर आख्या
१ जुलाई २०२४

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter