पकौड़ों के बिना

 
  अभी जो सामने मंज़र दिखा है!
पकौड़ों के बिना वो बे-मज़ा है!!

खिलाएँ या स्वयं जी भर के खाएँ!!
जुबां पर लुत्फ़ इन का ही चढ़ा है!

मिलें आलू के या गोभी, मटर के!
पकौड़ों का अलग अपना नशा है!!

झरप आती है खाने पर पकौड़े!
कि सरसों तेल में जब जब तला है!!

कहाँ फिर मिल सकेगा मुझ को यारो!
पकौड़ों का चला जो सिल सिला है!!

कभी आऊँगा तेरे घर मैं ‘आभा’!
पकौड़ों में तेरे क्या जायका है!!

- आभा सक्सेना ‘दूनवी’
१ जुलाई २०२४

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