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कार्यशाला-१०
नवगीत का पाठशाला में पिछले माह आयोजित की गई- दसवीं कार्यशाला जिसका विषय था
'मेघ बजे'। कार्यशाला में नये पुराने रचनाकारों की ३० रचनाएँ प्रकाशित की गईं। चुनी हुई 
रचनाएँ यहाँ प्रस्तुत हैं-

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

१- मेघ डाकिया

ले आया पावस के पत्र
मेघ डाकिया

मौसम ने धूप दी उतार
पहन लिए बूँदों के गहने
खेतों में झोंपड़ी बना
कहीं-कहीं घास लगी रहने
बिना पिए तृषित पपीहा
कह उठा पिया-पिया-पिया

झींगुर के सामूहिक स्वर
रातों के होंठ लगे छूने
दादुर के बच्चों का शोर
तोड़ रहा सन्नाटे सूने
करुणा प्लावित हुई घटा
अंबर ने क्या नहीं दिया

-- पं.गिरिमोहन गुरु

३- नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर

नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे
ठुमुक बेड़नी नचे बिजुरिया, बिना लजे

दादुर देते ताल
पपीहा प्यास बुझी
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी

तोड़ कूल-मरजाद नदी उफनाई तो
बाबुल पर्वत रूठे तनया तुरत तजे

पल्लव की करताल
बजाती बेल मुई
खेत कजलियाँ लिये
मेड़ छुईमुई हुई

जन्मे माखनचोर हरीरा भक्त पिए
गणपति बप्पा लाये मोदक हुए मजे

टप-टप टपके टीन
चू गयी है बाखर
डूबी शाला हाय
पढ़ाये को आखर

डूबी गैल, बके गाली अभियंता को
डुकरो काँपें, 'सलिल' जोड़ कर राम भजे

-- संजीव 'सलिल' 

५- छत पर

छत पर
टीन पुरानी, उसको
तड़-तड़ नहीं बजाओ
बरखा! हौले-हौले आओ

मज़दूरन माँ
हाड़ तोड़कर
थोड़ा-बहुत कमा लाई है
रूखा-सूखा
खिला-पिला
मुन्नी को अभी सुला पाई है
ख़ुद जग लेगी
पर उसकी
गुड़िया को नहीं जगाओ
बरखा
! हौले-हौले आओ

गुड़िया का
बापू भी यों तो
ज़्यादा नहीं कमा पाता है
उसी पुरानी
छत से, बापू
के बापू तक का नाता है
टीन बदलवाकर
यादों से
रिश्ता मत तुड़वाओ
बरखा! हौले-हौले आओ

बूँदा-बाँदी
में तो काफी
काम यहाँ चलते रहते हैं
निपट दिहाड़ी
मज़दूरों के
बच्चे
भी पलते रहते हैं
तेज़ बरसकर
बेचारों का
काम नहीं रुकवाओ
बरखा! हौले-हौले आओ

उपवन में
धीरे-धीरे
आना भी तो आना होता है
कोमल कलियों
को हलके
हाथों से सहलाना होता है
जितना सहन
कर सकें कलियाँ
उतना प्यार
लुटाओ
बरखा! हौले-हौले आओ

-- डॉ.त्रिमोहन तरल

७- इतना मत तरसा

इतना मत तरसा
यार, कुछ बूँदें तो बरसा

इतनी गरमी हाय पसीना
दिन बदरंग हो गया कारी
टेर रहा है मोर और
लगी सूखने है फुलवारी
कुछ भीगेंगे कुछ नाचेंगे
कहरवा, कजरी को हरसा

दृष्टि जहाँ तक सृष्टि हँसेगी
डाल-डाल पर झूले
दिन की बारहमासी
रातोंरात मल्हारें छूले
मत टँग आसमान में मैले
झर तू झर-झर-सा

धूल बनोगे या एक मोती
या वारिधि का संग
सब कुछ भला-भला-सा होगा
आओ, जैसे गंग
घर से निकले हो तो
मन में ऐसा क्यों डर-सा

--क्षेत्रपाल शर्मा

९- अमृतधारा सा पानी

पानी-पानी-पानी
अमृतधारा-सा पानी
बिन पानी सब सूना-सूना
हर सुख का रस पानी

पावस देख पपीहा बोले
दादुर भी टर्राए
मेह आओ, ये मोर बुलाए
बादऱ घिर-घिर आए
मेघ बजे, नाचे बिजुरी
और गाए कोयल रानी
पानी
-पानी-पानी

रुत बरखा की प्रीत सुहानी
भेजा पवन झकोरा
द्रुमदल झूमे, फैली सुरभि
मेघ बजे घनघोरा
गगन समंदर ले आया
धरती को देने पानी
पानी-पानी-पानी

बाँध भरे, नदिया भी छलकीं
खेत उगाए सोना
बाग-बगीचे हरे-भरे
धरती पर हरा बिछौना
मन हुलसे, पुलकित तन झंकृत
खुशी मिली अनजानी
पानी-पानी-पानी

-- आकुल

११- टप टप टप बूँद गिरे

टप-टप-टप बूँद गिरे
अंतस में हूक उठे
मेघ बजे

आमों की बगिया मॆं
मस्ती बौराई है
बरसेंगे गरज-ग‌रज‌
सूचना यह आई है
मत बरसो, मत बरसो
कौन कहे

झरनों की हर-हर पर‌
रीझ-रीझ जाता मन‌
गुन-गुन करते हँसते
हरे-हरे वन-उपवन
सर-सर-सर चले पवन
विटप हिले

सावन की रातों में
सजना बिन घर सूना
दिवस ढोए काँधों पर‌
रातों का दुख दूना
मन के दीपक लगते
बुझे-बुझे

-- प्रभुदयाल श्रीवास्तव
 


कार्यशाला-१०
२५ अक्तूबर २०१०

 

२- बदरा बरस गए

मीठी-मीठी मचा गुदगुदी
मन में सरस गए
बदरा बरस गए कजरारे
बदरा बरस गए

अभी-अभी तो
नभ गलियों में
इठलाते से आए थे
भी घूमते
कभी झूमते
भँवरे से मँडराए थे
देख घटा की अलक श्यामली
अधरों से यूँ परस गए
बदरा बरस गए मतवारे
बदरा बरस गए

रीती नदिया
झुलसी बगिया
डाली-डाली प्यास जगी
जल-जल सुलगी
दूब हठीली
नेह झड़ी की आस लगी
भरी गगरिया लाए मेघा
झर-झर मनवा सरस गए
बदरा बरस गए कजरारे
बदरा बरस गए

सुन के तेरे
ढोल-नगाड़े
धरती द्वारे आन खड़ी
रोली-चंदन
मिश्री-आखत
धूप औ' बाती थाल धरी
रोम-रोम से रोए, साजन
बिन तेरे हम तरस गए
बदरा बरस गए लो कारे
बदरा बरस गए

--शशि पाधा

४- आषाढ़ से आकाश अबतक

आषाढ़ से आकाश अब तक रो रहा है
बादलों को इस बरस क्या हो रहा है

आज पानी बन गया जंजाल है
भूख से पंछी हुए बेहाल हैं
रश्मियों को सूर्य अपनी खो रहा है
बादलों को इस बरस क्या हो रहा है

कब तलक नौका चलाएँ मेह में
भर गया पानी गली और गेह में
इन्द्र जल-कल खोल बेसुध सो रहा है
बादलों को इस बरस क्या हो रहा है

बिन चुगे दाना गगन में उड़ चले
घोंसलों की ओर पंछी मुड़ चले
दिन-दुपहरी दिवस तम को ढो रहा है
बादलों को इस बरस क्या हो रहा है

--डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक"

६- मेघ आए

मेघ आए
हम चलें भीगें कि
अपना घर बचाएँ
नींव है कमजोर
डर है ढह न जाए

प्यास से जब कंठ सूखे
गाँव के, बरसे न ये घट
आदमी जैसे भरोसा
खो चुके हैं नीर के नट
हो गए हैं अर्थ
ऋतुओं के निरर्थक
जिंदगी के गीत रूठे
किस तरह गाएँ

आ गया दालान तक
पानी गली को पारकर
एक चादर थी, हुई गीली
न सोया हारकर
बिस्तरे, बर्तन हुए हैं
नाव, आँगन ताल
डूबकर इसमें जिएँ
या डूब जाएँ

दर्द के झूले, अभावों ने
रची कजरी हमारी
जेठ सावन पर हमेशा
ही पड़ी है भूख भारी
जागना जिनको वही
सोए हुए हैं तानकर
मेह बरसे आग
शायद जाग जाएँ

बहुत गहरे एक बादल
गरजता मेरे हृदय में
उठ रहा तूफान बनकर
हौसले जैसा प्रलय में
बाढ़ दुख की बह चली तो
रोक पाएगा न कोई
और कब तक हम सहें
वे जुल्म ढाएँ

-- डॉ. सुभाष राय

८- फिर भी है कींच

इंद्रधनुष की डोरी नभ में
सूरज आज रहा है खींच
धोबन-बदली इस धरती के
मैले वसन रही है फींच
बरस रहा है झरझर-झरझर
स्वच्छ नीर, फिर भी है कींच

चश्मे की छतरी के नीचे
बैठी आँखें इतराती हैं
आँतें आँतों को डकारकर
ना जाने क्या-क्या गाती हैं
गंगा-तट पर बैठा बगुला
दबा रहा मछली की घींच
बरस रहा है झरझर-झरझर
स्वच्छ नीर, फिर भी है कींच

रात-भर अँधेरे को पूज चुके
लोगों को नींद आ रही है
फोड़ चुकी कौवी के अंडों को
कोयल अब मुस्करा रही है
सुन लेते हैं गीत अवांछित भी
सब अपनी आँखें मींच
बरस रहा है झरझर-झरझर
स्वच्छ नीर, फिर भी है कींच

-- रावेंद्रकुमार रवि

१०- रात भर बारिश

रात-भर
होती रही बारिश
खिड़कियों के उस तरफ
कमरे के बाहर

और मैं
चुपचाप तन्हा बौखलाया
सुन रहा था बादलों का शोर
भीगी-भीगी-सी हवा का
एक टुकड़ा
जागती आँखों में
लिखने लग गया था भोर

मुस्कुराकर
नींद मेरी सो रही थी
उस तरफ कमरे के बाहर
रात-भर
होती रही बारिश
खिड़
कियों के उस तरफ
कमरे के बाहर

मोटी-मोटी
पुस्तकों के भारी-भरकम शब्द
बेवजह मुझको चिढ़ाने लग गए थे कल
धीरे-धीरे बिछ रही थी खालीपन की
एक परत
कसमसाने लग गया था
प्यार का संबल

हाथों की अनमिट
लकीरें जाने
किसको ढूँढ़ती थीं
उस तरफ कमरे के बाहर
रात-भर
होती रही बारिश
खिड़कियों के उस तरफ
कमरे के बाहर

-- सिद्धेश्वर सिंह

१२- सूर्य बंद कमरे से झाँके

पायल पहिन बिजुरिया नाचे
प्रेमगीत दादुरिया बाँचे
तबला मेघ बजे
राग मल्हार सजे

झर-झर-झर-झर झरने झरते
लगते गिटार से
तेज हवा से झंकृत होते
पत्ते सितार से
आनंदित हो मोर-मोरनी
निकले सजे-धजे

पर्वत अविचल सौम्य शांत है
योगी सिद्ध हुआ
सूर्य बंद कमरे से झाँके
लगता वृद्ध हुआ
नदियाँ हुई सभी अनियंत्रित
सब तटबंध तजे

--शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

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