आस्था
मै ठोकर खाने के
कारणों को समझने बूझने लगा हूं।
इसीलिये अब
पत्थरों को पूजने लगा हूँ।
—बाबूलाल कदम |
क्षणिकाएँ
विभिन्न रचनाकार |
धूप
सूप–सूप भर
धूप–कनक
यह सूने नभ में गयी बिखर।
चौधाया
बीन रहा है
उसे अकेला एक कुरर।
- अज्ञेय |
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नंदा देवी
नीचे
हर शिखर पर
देवल :
ऊपर निराकार
तुम केवल . . .
— अज्ञेय
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माँ
द्वार पर बिछी हुई
माँ के माथे की शिकन
प्रतिरात कुचली जाती है
मेरे पाँव तले,
न वह छोड़ती है
प्रतीक्षा करना
न मैं कभी आता हूँ
समय से पहले।
— पद्मेश गुप्त
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धूप
मैने
अपने बंद अंधेरे कमरे की
खिड़की खोली थी
थोड़ी सी धूप के लिये।
ख़ामोशी से
एक दीवार
धूप के सामने खड़ी हो गयी
और धूप ने
अपना रास्ता बदल दिया।
— दीपंकर झा 'दीप'
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स्पर्श
पर्वत के जिस हिस्से पर
मेरे पाँव ठहर गए थे
तुम्हारे स्पर्श से
वो पिघल कर समंदर हो गया
और मैं . . . .
ग्लेशियर होने से बच गया।
— पद्मेश गुप्त
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मेरे
गाँव में
शीतल बयार
ठंडी छाया
निश्छल प्यार
कितना कुछ पाया
मैने मेरे गाँव में
—आलोक पाण्डेय
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पतंग
बँधती है
अटकती है
टूटती है
पतंग फिर भी
उड़ती है
— अश्विन गाँधी
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हस्तक्षेप
छोटी–सी नींद भी जरूरी होती है
थके हुए आदमी को।
छोटा–सा हस्तक्षेप जरूरी होता है जैसे
अपनी ही देर तक लिखी जा चुकी
कविताओं की दुनिया में।
—दिविक रमेश |
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कैसे
कहूँ
अनुभूतियों की अभिव्यक्ति कैसे करूँ
भावनाएँ बिखरी हैं
मजबूरियों के फर्श पर
संवेदनाएँ आहत हैं
ज़िन्दग़ी के अर्श पर
अच्छा है आज मैं चुप ही रहूँ
आज मैं अकेला हूँ कैसे कहूँ
—आलोक पाण्डेय
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आँखों से
शोर मच रहा है
नारे लग रहे हैं
तालियाँ बज रही हैं
फिर भी
कुछ सुनाई नहीं देता
दिल चाहता है
कोई कह दे
बहुत खूब
सिर्फ अपनी आँखों से
— अश्विन गाँधी
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