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काव्यचर्चा

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कविता क्यों और कैसी- शैल अग्रवाल


आज के इस यांत्रिक युग में जब सब कुछ जाना और समझा जा सकता है। हर चीज का संधि विच्छेद किया जा सकता है तो फिर कविता ही क्यों नहीं। क्या प्रेरित करता है इस रचनात्मक प्रक्रिया को? कहते हैं कि 'क्षिति जल पावक गगन समीरा्रपंचतत्व का अधम शरीरा' और जब शरीर के ये पाँचों तत्वों में से एक भी प्रभावित या उद्वेलित हो बाहरी तत्वों से जा मिलता है तो रचना प्रकरण शुरू हो जाता है – इस टूटन और बिखराव से ही सृजनात्मक ऊर्जा आती है। हॉकिन्स जब अपनी सृष्टि–संरचना के पहले बिग–बैंग थ्योरी को बता रहे थे तो शायद यही समझा रहे थे।

जब शरीर इन पाँच तत्वों से बनता है तो साहित्य या कला क्यों नहीं – आखिर वह भी तो हमारी चेतना या अंतस् का घर है। वहीं पर तो मन रमता है। रूप रंग हो या सूर–सागर, या प्यार और सहानुभूति का तरल स्पर्श, या फिर अवहेलना की चाबुक, सब हमें पलपल बदलते – तोड़ते और जोड़ते रहते हैं। जब तन–मन पानी–पानी होगा तो आँसू और मुस्कान बनकर बहेगा ही। चिनगारी की तरह तीव्र और जलता हुआ जब कोई विचार–व्यवहार प्यार या तिरस्कार अंतस् झुलसाएगा तो धुएँ के बादल उठेंगे ही। हवापर चढ़ी तरह-तरह की गंध और दुर्गंध मानस उद्वेलित करेंगी तो प्रतिक्रिया तो होगी ही। अब यह अलग बात है कि नाक सिकोड़कर हो या एक तृप्त मुस्कान के साथ और हम इसे चाहे कला कहें या प्रतिक्रिया –– शायद सुगढ़ता और सुरूचि से व्यक्त होकर अभिव्यक्ति ही कला का रूप ले लेती है।

धरती की तरह फैलती जरूरतों और जीवन को कल्पना के नए–नए रंगों की, नए बीजों की हमेशा ही जरूरत होती है और यह रूप–रंग, यह उड़ान मिलती है धरती को अपने उपर फैली असीम की छाया से। बात बिल्कुल सीधी और सरल है – अनुभूति जितनी और अभिभूत करने वाली होगी –– देर–सबेर अभिव्यक्ति उतनी ही तीव्र और सधन। चाहें फिर वह शब्दों में हो, रंगों में या फिर चपल अंग–अंग की थिरकन में। यह सब आदि काल से ही होता आ रहा है। विधाता की इस सृष्टि में साँस लेने और जीवन की अन्य जरूरतों की तरह यह भी एक स्वाभाविक प्रक्रिया हैं जो हमारे लिए सुख का ही नहीं मानसिक उपचार का भी काम करती है – वरना हमें गुफाओं में कला के नमूने ना मिल पाते। लोकगीतों और लाकोक्तियों में वह तलवार की धार और फूलों की कोमलता न मिल पाती। अगर सब कुछ पढ़–लिखकर या उपाधियों से ही अर्जित होता तो कबीर और वाल्मीकि हमें कैसे मिल पाते ––

जब बादल सा उमड़–घुमड़कर कुछ मन–मस्तिष्क पर छा जाता है। बिजली–सा नस–नस में कड़कता और बूँद बूँद, हरपल आँखों और होठों से टपकता है तो यही उन्मन, अस्थिर तड़प रचना को जन्म देती है। और अगर यह आकस्मिक रसायनिक आंदोलन बाहर ना आ पाए तो हमें अस्वस्थ भी कर सकता है। भावनाओं के इस नियंत्रित निष्कास को ही शायद अरस्तू ने कैथारसिस का नाम दिया और गालिब भी शायद यही कह रहे थे जब उन्होंने दर्द को ही दिलकी दवा कहा। इस तरह हम कुछ हद तक कह सकते हैं कि जीवन हो या साहित्य, शायद विघटन का
ही दूसरा नाम सृजन है।

इसीलिए अच्छी रचना कभी बनाई नहीं जाती खुद ही बनती है। यह बात दूसरी है कि बाहर आने की शीघ्रता में वह अस्त–व्यस्त या लस्त–पस्त हो जाए और कभी–कभी उसे हलके से सहारे की जरूरत पड़े –– वैसे ही जैसे बिखरे मोतियों को माला बनाकर पहनने के लिए रेशम के धागों की। बनी–सँवरी वस्तु चकाचौंध करती है पर जो मन या मस्तिष्क में उतरे वही साथ चलती है। आत्मसात होती है। जैसे प्रयास के बाद मिला सुख, सुख नहीं बस तृप्ति देता है वैसे ही प्रयास से लिखी कविता या तस्वीर चमत्कृत तो करती है अभिभूत या द्रवित नहीं। पर उसे हेय या तुच्छ नहीं कहा जा सकता क्योंकि जो भी मन या मस्तिष्क तक पहुँच पाए – प्रभावित कर पाए वह सशक्त तो है ही। पर समय की कसौटी पर खरी उतरने वाली रचना तो शायद अंतरंग संगिनी सी होती है और ऐसे साथी सौभाग्य से यदाकदा ही मिल पाते हैं – सुगन्ध और बयार की तरह उन्हें सहेज पाना भी उतना आसान नहीं।

हम खुदको रचियता मानें या न मानें पर सृजन और संयोजन जीवन का हर पल करता है। कलाकार बस उसे एकाग्रता के साथ सहेज सकता है – बाँधकर हमारे लिए प्रस्तुत कर सकता है ––एक सुन्दर सजे सहज और नए आकार में। अर्थात कला में सच्चाई, सहजता और एकाग्रता के साथ नवीनता भी चाहिए ही, इसीसे विविधता आती है। वैसे यह विविधता भी मौलिक रचनाओं में स्वतः ही आ जाती है क्योंकि उसमें कलाकार खुद
प्रतिबिम्बित होता है। जैसे वही नमक मिर्च होने पर भी स्वाद हाथ का होता है – भावनाओं का होता है, मसालों का नहीं।

बात सब वही हैं पर किसने कही और कब कही, पूरा अर्थ बदल जाते हैं। जब प्यासा 'पानी दो' कहकर पानी माँगे तो शायद देने वाले से देर हो जाए पर जब वह कहेगा प्यास से मर रहा हूँ तो देने वाला दौड़कर पानी लाएगा। इसी एकाग्र तीव्र आँच की उष्मा मिली मुझे हार्डी और शरद में। लहरों की उथल पुथल और सुन्दरता टैगोर प्रसाद गालिब अज्ञेय भारती नीरज व अमृता प्रीतम में। धरती आकाश की सी गहराई और ऊँचाई, संसार को खुद में समेट लेने की शक्ति कबीर, सुर और तुलसी में। हवा के झोंकों सी ताजगी और तूफान खयाम, कनफ्यूसस टॉलस्टॉय और ह्यूगो में। सूची अंतहीन है क्योंकि जीवन से ही कला साहित्य और उसके रचयिया भी विविध और अंतहीन हैं। हर सदी में, हर समाज में अच्छा लिखने वाले होते हैं क्योंकि अभी भी भगवान ने हृदय और मस्तिष्क बनाने बन्द नहीं किए। ईमानदारी और सच्चाई से कही या रची हर बात सशक्त ही होती है और अगर उसके साथ रचयिता का अंतस् कोमल और तरल हो तो सौजन्य और सजलता भी आ जाती है। सद्भाव भी आ
मिले तो कला सत्यं शिवं सुन्दरम् हो अनहद नाद सी चतुर्दिक गूँज उठती है।

वह आत्मा का धनी और मन का अक्खड़, फकीर शायद सच ही कह रहा था जब उसने लिखा था – ' जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ।' फिर देर किस बातकी तीव्रता से महसूस किए हर पल को आप भी ईमानदारी से बाँधने की कोशिश करते रहिए क्या पता आपमें भी कहीं टैगोर और प्रसाद छुपे हों। पिकासो या टर्नर हों।

बस इतना याद रखिए कि अच्छे कलाकार के लिए अपने ही नहीं दूसरों के भी सुख–दुख को, अपने आसपास को, जीना, महसूस करना और फिर थमकर सोचना – उस शाश्वत सच को ढूँढ़ना एक नितान्त जरूरत है तभी तो हर मन उससे जुड़ पाएगा। शिक्षा और संयम छंद और लय तो दे सकते हैं पर रंग–रूप चाह और आहसे ही आते हैं वाहवाह से नहीं। परेशान नहीं होइए अगर आपको सबकुछ नहीं आता – आपने बहुत कुछ नहीं पढ़ा है – सबकुछ तो कोई भी नहीं समेट पाया है –– सागर भी नहीं ––
सागर की तहमें कब डूबी सूरज–सी हर बात
लहर–लहर का शोर और रेत–रेत की प्यास।

 

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