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 प्रमोद त्रिवेदी

 

अनंत पर अनंत की छाप
११ कविताएँ

एक

अनंत में अनंत है
इसी अनंत में सारी दिशाएँ खुलती है
इसी अनंत में सारी दिशाओं का अंत है
अनंत पर अनंत की छाप
छाप, अनंत की मुझ पर
या कि मेरी छाप,
अनंत पर।

दो

देखने से परे भी दृश्य हैं
इसलिए, अदृश्य कुछ भी नहीं है
जहाँ कुछ भी नहीं माना जा रहा है
वहीं घटित होते रहते हैं चमत्कार।
यह सीमा है हमारी दृष्टि की
होने की कोई सीमा नहीं है।

तीन

यह जो फलक है
उसपर और कुछ भी नहीं, मैं हूँ।
मैं वो भी नहीं,
जिसे आप जानते हैं, अपनी तरह से
मेरा यह परिचय है,
एक सर्वथा अपरिचित भाषा में
इस भिन्न भाषा में पा
मैं चकित हूँ। स्वयं पर
पर इसी भाषा में ही मैं प्रामाणिक।
इसी अनिर्वचनीय भाषा-लीला में
यथार्थ और परायथार्थ की लीलाभूमि पर
अपने चरम अस्तित्व में
मैं- अपनी छाप।
अपनी घोषित सामाजिकता से परे
सिरजता-
अपनी नई सामाजिकता।

चार

एक ना कुछ के बिंदु में
क्या कुछ नहीं है!
इसी बिंदु पर खड़ा मैं भीग रहा हूँ
उसी बिंदु की विराटता में
विलयन हो रहा है मेरा
जहाँ-जहाँ काला रंग दिखाई दे रहा है तुम्हें
वहाँ एक-एक साथ कितने ही सूर्य प्रकाश भर रहे हैं।

पाँच

कोई एक झिरी
किसी एक किरण को प्रवेश देती है
नहीं, कोई सुदूर नक्षत्र
उस किरण में प्रवेश पा लेता है- अगम्य, अज्ञात प्रदेश में।
अचानक आँख खोलता है अपनी
और रोशनी में नहा
बोलता है पहली बार
वह किरण भी चकित!
चकित हम भी!!
अन्वेषित कर उस प्रदेश को
कुछ मुग्ध!
कुछ सहमे!
कुछ आक्रांत!

छह

मैंने समय को पुकारा
और समय ने
मुझसे मेरा समय ले लिया।
मैंने पदार्थ को पुकारा
और वो मेरी ही पदार्थता लेकर गायब हो गया।
मैं, काल में घटित होती एक घटना!
नहीं,
मैं तो उसमें घटित घटनाओं का निमित्त।

सात

एक ओट है
इस ओट के पीछे रचना है।
एक तिलिस्म है अंधेरे का
नहीं, उजास का।
और इस उजास में आँखें खोलना संभव नहीं है।
अंधेरे में मैं खोलता हूँ अपनी आँखें
और मुझे, मुझमें प्रवाहित उजास की नदी दिखाई देती है।
एक डोंगी है इस नदी के तट पर
मैं इस डोंगी पर सवार
नदी,
नहीं, सारे अंधेरे और उजास को पार कर
अक्षर हो जाता हूँ।

आठ

यहीं,
हाँ- यहीं हूँ मैं इस विस्तार में
मैं हूँ और मेरे रंग-ढंग हैं
मेरी भाषा है
एक असामाजिक-सी भाषा
और इसी में जारी है मेरा निरंतर संवाद
इसी भाषा में मेरी मृत्यु
मेरे पुनर्जन्म!
इसी असीमता में मेरी सीमा
और इसी में असीम होने की विकलता
कितना कुछ मेरी सीमा में
और कितना कुछ इस सीमा से बाहर।
 

नौ

सतहें हैं
अनंत सतहें हमपर- हममें!
जो परे हैं, उनपर भी अनंत सतहें
इन अनंत सतहों की रहस्यमयता को
सूर्याओं की कल्प-यात्राएँ भी स्पर्श नहीं कर
सकी हैं अब तक।
इन अनंत सतहों के महातिमिर में
प्रवाहित जल की हिम-अथाहता में नहीं,
कोई मछली अपनी कामनाओं में तैर रही है
न कोई दिशा
न लक्ष्य
क्यों? किधर? कहाँ? कब? के विकल प्रश्नों से परे
वह बस, जीवित-सक्रिय
अपने निष्काम भाव में।

दस

जो है,
उसमें मैं क्या देखता हूँ?
जो देखता हूँ,
वह मुझे ही क्यों दिखाई देता है?
मैं देखता हूँ
और देखने में एक साथ कितनी ही सृष्टियाँ देख लेता हूँ
कितने प्रलय!
कितने उत्सव!
कितने अवसान!
मेरे पास भाषा थी जो
उसे छोड़ आया हूँ, समाज में
मैं जिस देश में हूँ
उसकी भाषा में तो हुआ जा सकता है
पर संवाद संभव नहीं है।

ग्यारह

अनंत में अनंत की गाँठ खुलती है
अनंत को अनंत से कहा जा रहा है
अनंत काल से
अनंत कहे जाते रहने के बावजूद
अनंत अंततः अनकहा ही रह जाता है
क्या वाकई
अनंत में अनंत की गाँठ खुलती है?

२८ अप्रैल २००८

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