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सावित्री शर्मा

 

  भ्रम एक फिर टूटा

आ गया अवसान लगता
आज सब झूठा
देखते ही देखते
भ्रम एक फिर टूटा।

जाल रिश्तों का बहुत ही
दूर तक फैला
स्वार्थ के छींटे पड़े तो
हो गया मैला
तनिक से आघात
मन दर्पण दरक फूटा।

कामनाओं के कलश
भर भर हुए रीते
सोचती सुधि मधुपगे
दिन क्यों भला बीते
ज़िन्दगी भर ज़हर मीठा
प्यार से घूँटा।

ओढ़कर गहरा अँधेरा
चाँदनी बुनना
नागफनियों के नगर
रहकर सुमन चुनना
स्वप्नवत सम्मोह से
संवाद-सुख छूटा।

९ जून २००६

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