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प्रज्ञा ऋचा श्रीवास्तव

 

 

आह्वान

अरी ओ विहंगमे
विचरती हो कहाँ
अकेली...
अधूरी...
आँखों में सपनों का उन्माद लिए
या फिर
यथार्थ का अवसाद लिए...
अकेली हूँ
अधूरी नहीं
रोएँ-रोएँ में उल्लास है
खुद के होने का अहसास है
न हो तो न कोई संग
मैं तो रँगी
जीवनोत्सव के रंग...
आइए महिला दिवस पर हम यह संकल्प लें कि
अपनी बेटियों को पहचान देंगें
उन्हें घोंसले नहीं
पंख सपने और उड़ान देंगें।

१६ फरवरी २००६ 

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