|  भारतेंदु 
                  हरिश्चंद्र 
  (१८-१९ 
                  वीं शताब्दी)  जन्म : १८ वीं 
                  शताब्दी में काशी में।माता-पिता का देहांत हो जाने के कारण उनकी शिक्षा का समुचित 
                  प्रबंध नहीं हो सका। वे क्वींस कालेज में दाखिल हुए लेकिन मेधावी 
                  होने के बावजूद कालेज की शिक्षा में उन्होंने मन नहीं लगाया और 
                  स्वतंत्र रूप से शिक्षार्जन की ओर प्रवृत्त हुए। स्वाध्याय 
                  द्वारा ही भारतेंदु ने हिंदी, संस्कृत और अंग्रेज़ी के अलावा 
                  मराठी, बंगला, गुजराती, मारवाड़ी, पंजाबी, उर्दू आदि भाषाओं का 
                  भी ज्ञान प्राप्त किया और काशी में इतने प्रतिष्ठा प्राप्त हो गए 
                  कि बीस वर्ष की अवस्था में ही ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट बनाए गए। 
                  चौंतीस साल की अल्पायु में ही में उनका निधन हुआ।
 भारतेंदु प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे। भारत के अतीत के 
                  प्रति असीम श्रद्धा रखते हुए भी वे विज्ञान के क्षेत्र में 
                  अंग्रेज़ों से बहुत कुछ सीखने के पक्षपाती थे।
 'निज भाषा उन्नति' की दृष्टि से 
                  उन्होंने १८६८ में 'कविवचनसुधा' नामक पत्रिका निकाली, १८७३ 
                  'हरिश्चंद्र मैगज़ीन' और फिर 'बाला-बोधिनी' नामक पत्रिकाएँ। साथ 
                  ही अनेक साहित्यिक संस्थाएँ भी खड़ी कीं। वैष्णव भक्ति के प्रचार 
                  के लिए उन्होंने 'तदीय समाज' की स्थापना की थी। अपनी देश भक्ति 
                  के कारण राजभक्ति प्रकट करते हुए भी उन्हें अंग्रेज़ी हुकूमत का 
                  कोपभाजन बनना पड़ा। उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के 
                  विद्वानों ने १८८० में उन्हें 'भारतेंदु' की उपाधि प्रदान की थी, 
                  जो उनके नाम का पर्याय बन गया। हिन्दी साहित्य को भारतेंदु की 
                  देन भाषा तथा साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में है। भाषा के 
                  क्षेत्र में उन्होंने खड़ी बोली के उस रूप को प्रतिष्ठित किया, 
                  जो कि उर्दू से भिन्न है और हिंदी क्षेत्र की बोलियों का रस लेकर 
                  संवर्धित हुआ है। इसी भाषा में उन्होंने अपने संपूर्ण 
                  गद्य-साहित्य की रचना की।प्रमुख रचनाएँ -
 नाटक : 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति'(१८७३), 'भारत 
                  दुर्दशा'(१८७५), 'सत्य हरिश्चंद्र'(१८७६), 'श्री चंद्रावली'(१८७६) 
                  'नीलदेवी'(रचना-काल १८८१)। 'अंधेर नगरी'(रचर्नाकाल १८८१)
 प्रमुख काव्यकृतियाँ हैं: 'भक्तसर्वस्व'(१८७०), 
                  प्रेममालिका'(रचना-काल-१८७१), 'प्रेम-माधुरी' (१८७५), 
                  'प्रेम-तरंग' (१८७७), 'उत्तरार्द्ध-भक्तमाल' (१८७६-७७), 
                  'प्रेम-प्रलाप'(१८७७), 'गीत-गोविंदानंद' (१८७७-७८), 
                  'होली'(१८७९), 'मधु-मुकुल'(१८८१), 'राग-संग्रह'(१८८०), 
                  'वर्षा-विनोद'(१८८०), 'विनय प्रेम पचासा'(१८८१), 'फूलों का 
                  गुच्छा'(१८८२), 'प्रेम-फुलवारी'(१८८३) और 'कृष्णचरित्र' (१८८३)।अनुवाद : बंगला से 'विद्यासुंदर' नाटक, संस्कृत से 'मुद्राराक्षस' 
                  नाटक, और प्राकृत से 'कपूरमंजरी' नाटक।
 निबंध संग्रह : 'भारतेंदु ग्रंथावली' (तीसरा खंड) में संकलित 
                  हैं। उनका 'नाटक' शीर्षक प्रसिद्ध निबंध (१८८५) ग्रंथावली के 
                  दूसरे खंड के परिशिष्ट में नाटकों के साथ दिया गया है।
 भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी में आधुनिक साहित्य के जन्मदाता और 
                  भारतीय पुनर्जागरण के एक स्तंभ के रूप में मान्य हैं।
 |  | मातृ-भाषा के 
                    प्रति निज भाषा उन्नति 
                    अहै, सब उन्नति को मूल।बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
 अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब 
                    गुन होत प्रवीन।पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
 उन्नति पूरी है तबहिं जब घर 
                    उन्नति होय।निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।।
 निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ 
                    न ह्यैहैं सोय।लाख उपाय अनेक यों भले करो किन कोय।।
 इक भाषा इक जीव इक मति सब घर 
                    के लोग।तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।
 और एक अति लाभ यह, या में 
                    प्रगट लखात।निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।
 तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात 
                    सुनै जो कोय।यह गुन भाषा और महं, कबहूँ नाहीं होय।।
 विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान 
                    अनेक प्रकार।सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।
 भारत में सब भिन्न अति, ताहीं 
                    सों उत्पात।विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।
 सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे 
                    और उपाय।उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।
 |