| भारत भूषण आर्यके दोहे
   |  | गरमी के दोहे 
                  सूखे पत्तों के अधर, आग उगलती 
					छाँव।गरम हवाएँ चल रहीं, शकुनी के छल-दाँव।।
 दीवारों को देखती, गरमी में यों 
					धूप।जैसे देखे षोड़शी, यौवन चढ़ता रूप।।
 तड़प-तड़प के दिन कटे, 
					सिसक-सिसक के रात।गरमी में कैसे करें, रातें मन की बात।।
 पले पाँव में आँवले, दूर छाँव 
					का गाँव।धूप ओढ़ चलता रहा, बैठ आस की छाँव।।
 निर्धन की तकदीर में, कैसा सुख 
					का रूप।बिना पात का पेड़ ज्यों, सहे जेठ की धूप।।
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