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सीतेश आलोक की प्रार्थनाएँ



क्या दिया
कितना दिया
और क्यों दिया?
और जो नहीं दिया...!
अपना यह सारा गणित
हे प्रभु, तुम्ही जानो।

मेरी तो बस
इतनी विनती मानो-
कि जो पाया
उसपर न इतराऊँ
और जो हाथ नहीं आया
उसपर...
रोते-बिसूरते ही न बीत जाऊँ।

 

 

लौटा लो, प्रभु!
अपना वरदान
जो दिया था तुमने
मेरी प्रार्थना पर-
सुख भरी नींद के लिए।

देखकर चारों ओर...
मैं तुम्हारे वरदान की
लाज नहीं रख पाऊँगा
किसी को भूखा
तो किसी को भय से
व्याकुल देख
मैं चैन से सोया भी
तो स्वयं
अपनी ही दृष्टि में गिर जाऊँगा।

 

 

बड़े भोले हो तुम, प्रभु!
जो भी, तन तपाता
तुम्हारे गुन गाता है
उसे वरदान दे आते हो।

देखना प्रभु,
कोई गुन गाकर तुम्हारे
तुम्हें ही न छल जाए...

ज्ञान भी देना, उसे
वरदान के साथ
कि बल पाकर तुमसे-
कभी कोई
निर्बल का मन न दुखाए।

ठीक ही तो है, प्रभु!
कि आत्मा भी
जीर्ण वस्त्र त्यागे
और नया परिधान पाए...

पर देखना बस यह
कि समय से पहले ही
कोई वस्त्र-
जीर्ण न हो
धूमिल न पड़े
या नष्ट न हो जाए।

अथवा...
नए वस्त्र के बालहठ में
कभी आत्मा ही
उसे अकारण त्याग न जाए।


किसी को ऊँचा
और किसी को नीचा
कुल... क्यों दिया तुमने!
मेरी तो बस
हे प्रभु!
इतनी प्रार्थना मानो-

कि जो नीचा जन्म पाए
वह अंकुर की तरह फूटे
और सूर्य की ओर बढ़कर
छाया दे, पृथ्वी को
और मुक्त होकर
पवन के साथ
झूमे, लहराए।

और मिली हो जिसे ऊँचाई
वह झुकना भी सीखे
उदार मन से
झुककर हाथ बढ़ाए
और किसी गिरे हुए को

उठाने का गुण भी पाए।

और कभी-
जलधर की तरह
खुलकर बरसे
तो प्यासों की प्यास बुझाए।

२१ सितंबर २००९

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