| रहीमदास 
					 अर्ब्दुरहीम ख़ानख़ाना 
                  (१५५६-१६२७) मुगल सम्राट अकबर के दरबारी कवियों में से एक थे। 
                  रहीम उच्च कोटि के विद्वान तथा हिन्दी संस्कृत अरबी फारसी और 
                  तुर्की भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने अनेक भाषाओं में कविता की 
                  किंतु उनकी कीर्ति का आधार हिन्दी कविता ही है।  उन्होंने ब्रज और अवधी दोनों 
                  भाषाओं में समान रूप से लिखा है और मुस्लिम होते हुए भी आस्थावान 
                  हिन्दू की भाँति कृष्ण राम शिव और गंगा के प्रति अपनी 
                  भक्ति-भावना को निवेदित किया है। उनके दोहों में भक्ति नीति 
                  प्रेम लोक व्यवहार आदि का बड़ा सजीव चित्रण हुआ है। आपके तीन 
                  प्रसिद्ध ग्रंथ हैं - रहीम दोहावली, बरवै नायिका भेद और नगर 
                  शोभा। |  | रहीमदास के दोहे रहिमन देख बड़ेन को लघु न 
                  दीजिये डार।जहाँ काम आवे सुई कहा करै तलवार।।
 जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि 
                  सकत कुसंग।चंदन विष व्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग।।
 खीरा सिर से काटिये मलियत नमक 
                  बनाय।रहिमन करूए मुखन को चहियत इहै सजाय।।
 रहिमन विपदा हू भली जो थोरे दिन 
                  होय।हित अनहित इह जगत में जान पड़े सब कोय।।
 रहिमन धागा प्रेम का मत तोरउ 
                  चटकाय।टूटे से फिर से ना मिलै, मिलै गांठि परि जाय।।
 रूठे सुजन मनाइये जो रूठे सौ 
                  बार।रहिमन फिर फिर पोइये टूटे मुक्ताहार।।
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