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                  बंशीधर अग्रवाल की ग़ज़ल |  | बेटियाँ 
भोर की उजली किरण-सी घर में आएँ बेटियाँसाँझ की लाली लजीली बन के जाएँ बेटियाँ।
 
 ये चिरैयों सी फुदकती, द्वार, देहरी, आँगने,
 जो मिला चुगकर उसे ही चहचहाएँ बेटियाँ।
 
 नाप लें अपनी उड़ानों में गगन की दूरियाँ
 फड़फड़ाए पर न कह पाएँ व्यथाएँ बेटियाँ।
 
 ये सरल मन की किताबें बाँच तो लेना ज़रा
 प्राण में होंगी ध्वनित पावन ऋचाएँ बेटियाँ।
 
 वार दें सर्वस्व अपना जो कुलों की आन पर
 पुत्र कुल दीपक अगर तो हैं शिखाएँ बेटियाँ।
 
 कीर्ति की उज्ज्वल पताका कम इन्हें मत आँकिये
 दो कुलों को तारती ये तारिकाएँ बेटियाँ।
 
 ये लिए तूफ़ान भी, इनमें अतल गहराइयाँ
 आब मोती सी सजाएँ सीपिकाएँ बेटियाँ।
 
 ज़िंदगी की धूप तीखी छाँह भी मुमकिन न हो
 मानिए सच यों लगें शीतल हवाएँ बेटियाँ।
 
 २० जुलाई २००९
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