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२१. ४. २००८ 

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अख़बार के शीर्षक

मुझे नहीं चाहिए-
एक कमरे की ज़िंदगी,
सुबह-शाम का पानी,
साढ़े आठ बजे का अलार्म,
मशीन का दूध,
पलंग के नीचे रसोई,
पड़ोस का सन्नाटा,
ऊपरी मंज़िल का शोर,
गली की किच-किच।
वाकई, नहीं चाहिए मुझे-
जोश भरे पल भर के रिश्ते,
मतलब की दोस्ती,
जल्दी की दुआ-सलाम,
ऑफ़िस की जल्दी,
बसों की भीड़,
स्टैंड की उदासी,
रेंगती कारों का रेला,
मुर्दा दिलों का मेला,
और...
धुएँ से लिपटी शाम की बेला।
नहीं सहन होता मुझसे-
देर का सोना,
नींद में रोना,
उम्मीदों का मरना,
खुद से डरना,
क्यों...
अखबार के शीर्षक,
टीवी का सुर्खियाँ,
नहीं चाहिए...नहीं चाहिए...नहीं चाहिए
मुझे यह शहर,
पर, मेरा गाँव...?

-- तसलीम अहमद

 

इस सप्ताह

पाँच नए कवि अनुभूति में पहली बार-
सच को पहचानते हुए-

संवेदनाओं में गुम-

सहज व्यंग्य से-

विद्रोह के स्वर में-

परंपरा के गलियारों में-

पिछले सप्ताह
१४ अप्रैल २००८ के अंक में

गौरवग्रंथ में-

अंजुमन में-

छंदमुक्त में-

हँसिकाओं में-

गीतों में-

 

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