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कागज की नाव |
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नदी-नदी तैर रही
कागज की नाव।
वन-पर्वत-घाटी
भूले परिपाटी
मेघों का भाव
तौल रही माटी
अनदेखे मन के अब
उभर रहे घाव।
मूल्यों के विघटन
धुंध, धुआँ, बादल
थकी-थकी आँखों से
बहता है काजल
चिंतन बिन चिंता से
उलझ गये भाव।
टूट गईं सीमाएँ
दूभर है जीना
फटी हुई चादर औ'
नित्य उसे सीना
सूरज ने दिखा दिया
धरती को ताव।
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भवेश चंद जायसवाल |
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१ सिंतबर २०१६ को प्रकाशित अंक में
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