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धूप जिन्दगी |
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इनके उनके सबके मन को
खलता रहता हूँ
हुई जेठ की धूप जिन्दगी
जलता रहता हूँ
सपनों में ही छुपकर मिलने
खुशियाँ मेरे घर आएँ
होंठ चूमती रोज निराशा
नयन मिलातीं आशाएँ
साँझ ढले, इस मन को मैं बस
छलता रहता हूँ
तुम बिन मरना है जी जीकर
पर मरने तक जीना है
पग पग पर विष मिले भले ही
हँसकर मुझको पीना है
चंद लकीरें लिए, हाथ बस
मलता रहता हूँ
भटक रहा हूँ जीवन पथ पर
खोज रहा हूँ रोटी मैं
काट रहा हूँ अपने तन पर
प्रियवर रोज चिकोटी मैं
बिना रुके मैं, बिना थके बस
चलता रहता हूँ
- धीरज श्रीवास्तव |
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