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गुलमोहर की
छाँव में |
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मैं अपरिचित शहर की
गुमनाम भीड़ों की इकाई
गुलमोहर की छाँव में
मेरी प्रतीक्षा अब न करना
सोचता था मैं जहाँ
इतिहास बन जाना वहीं अब
दशमलव के दाहिने
अंकों सरीखा रह रहा हूँ
मैं किसी तूफ़ान को क्या
मोड़ पाता जब स्वयं ही
ज़िंदगी की एक हलकी
सी हवा में बह रहा हूँ
मैं पखेरू हूँ कि जिसके
पंख कोमल
समय से पहले बिखरने
लगे हैं वातावरण में
इन उड़ानों में कहीं उत्साह या
मंजिल नहीं है
तुम सपन के गाँव में
मेरी प्रतीक्षा अब न करना
हर खुशी की चाह ने
कुछ दर्द ही अब तक कमाए
अंधकारों को समर्पित
आयु ने कुछ गीत गाये
बस, तुम्हारी याद के अतिरिक्त
मुझ पर कुछ नहीं था
किन्तु मेरे आह भीगे स्वर
पहुँच तुम तक न पाए
जो कि रेतीले तटों पर
डूब कर उबरे नहीं
मैं, उन्हीं की एक पुनरावृत्ति हूँ
ओ मीत मुझ पर अब न
यौवन-जनित कर्पूरी महक
तुम भूल कर भी
शुभ सफ़र की नाव में-
मेरी प्रतीक्षा अब न करना
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कन्हैयालाल बाजपेयी |
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२०१६ को प्रकाशित
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