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देखा है
लोगों को हमने |
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देखा है लोगों को हमने
गिरगिट जैसे रंग बदलते
पल में तोला, पल में माशा
बहुरूपी दरपन सा छलते
गाजर घास उगी मन मधुबन
क्षीण कर रही कोमल काया
नागफनी के पेड़ लगाकर
ढूँढ रहे हैं शीतल छाया
षड्यंत्रों की पगडण्डी पर
आशा के दीपक को जलते
दरवाजे पर आँख गड़ाकर
कानाफूसी करते हैं दिन
कुशल क्षेम संबोधन भूले
तरकश में रख लेते हैं पिन
नई हवा की रंगरेलियाँ
लज्जा के आँचल को ढलते
अंग अंग चन्दन सा महके
तन गोरा, पर मन है काला
आस्तीन का साँप बने, वो
अंहकार की पहने माला
दाँव-पेंच में, उलझी साँसें
आँखों में कटुता को पलते
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- शशि पुरवार |
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इस पखवारे
गीतों में-
अंजुमन में-
छंदमुक्त में-
मुक्तक में-
पुनर्पाठ में-
पिछले पखवारे
१५ फरवरी
२०१६ को प्रकाशित
गीतों में-
अंजुमन में-
छंदमुक्त में-
दोहों में-
पुनर्पाठ में-
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