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कांकरीट के
महानगर में |
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कांकरीट के महानगर में
रहते हैं जो लोग
सीमित अपने ही अपने में
कैसा है संयोग
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सम्बन्धों को निगल रही है स्वारथ की घाटी
दादा-दादी वाली छूटी पीछे परिपाटी
अर्थ हेतु सब करते रहते
निशि-दिन नये प्रयोग
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चेहरों पर है मौन उदासी केवल सम्बल है
हँसकर बात न करता कोई माथे पर बल है
गुणा-भागकर जोड़ घटाना
देख रहे हैं योग
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गुमसुम स्वयं-स्वयं में रहते खोये-खोये हैं
काँटे नहीं और ने बोये सबने बोये हैं
फागुन के मौसम में देखो
कैसा हुआ वियोग
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आस-पास घर के दरवाजे खास न कोई है
पछुआ संस्कृति की कैसी यह फसलें बोई हैं
इसीलिए एकाकीपन का
भोग रहे हैं भोग।
1
आओ हम सब मिलकर तोड़ें जिद्दी जंजीरे
चलो बनाएँ नवयुग में भी फिर से नई नजीरें
तभी हमारा जीवन होगा
सुन्दर और निरोग
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- जयराम जय |
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इस पखवारे
गीतों में-
अंजुमन में-
छंदमुक्त
में-
कुंडलिया में-
पुनर्पाठ
में-
पिछले पखवारे
१५ नवंबर
२०१५ को प्रकाशित
गीतों में-
अंजुमन में-
छंदमुक्त
में-
गद्य कविता में-
पुनर्पाठ
में-
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