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अभिव्यक्ति तुक-कोश

१. १२. २०१५

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कुण्डलिया हाइकु अभिव्यक्ति हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर नवगीत की पाठशाला रचनाकारों से

कांकरीट के महानगर में

 

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कांकरीट के महानगर में रहते हैं जो लोग
सीमित अपने ही अपने में
कैसा है संयोग
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सम्बन्धों को निगल रही है स्वारथ की घाटी
दादा-दादी वाली छूटी पीछे परिपाटी
अर्थ हेतु सब करते रहते
निशि-दिन नये प्रयोग
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चेहरों पर है मौन उदासी केवल सम्बल है
हँसकर बात न करता कोई माथे पर बल है
गुणा-भागकर जोड़ घटाना
देख रहे हैं योग
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गुमसुम स्वयं-स्वयं में रहते खोये-खोये हैं
काँटे नहीं और ने बोये सबने बोये हैं
फागुन के मौसम में देखो
कैसा हुआ वियोग
1
आस-पास घर के दरवाजे खास न कोई है
पछुआ संस्कृति की कैसी यह फसलें बोई हैं
इसीलिए एकाकीपन का
भोग रहे हैं भोग।
1
आओ हम सब मिलकर तोड़ें जिद्दी जंजीरे
चलो बनाएँ नवयुग में भी फिर से नई नजीरें
तभी हमारा जीवन होगा
सुन्दर और निरोग
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- जयराम जय

इस पखवारे

गीतों में-

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जयराम जय

अंजुमन में-

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मुकुंद कौशल

छंदमुक्त में-

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पंखुरी सिन्हा

कुंडलिया में-

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शालिनी रस्तोगी

पुनर्पाठ में-

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दिव्यनिधि शर्मा

पिछले पखवारे
१५ नवंबर २०१५ को प्रकाशित

गीतों में-

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पूर्णिमा वर्मन

अंजुमन में-

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जय प्रकाश मिश्र

छंदमुक्त में-

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मधु संधु

गद्य कविता में-

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मनु मनस्वी

पुनर्पाठ में-

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रवीन्द्र भ्रमर

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संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
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