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रहे जब तक पिता, घर
जैसा रहा घर
एक चौका-एक चूल्हा
एक आँगन-एक छत
एक जैसे मन सभी के
मुँह अलग पर एक मत
एक डोरी से बँधे थे
धरा-अंबर
उत्सवों जैसा सदा था
उत्सवों का आगमन
दमकती थी द्वार पर
उल्लास की उजली किरन
स्वर अभावों का कभी
ठहरा न पल भर
शीश पर वट-बृक्ष–सी
छाया हमेशा थी सघन
शीत-वर्षा–घाम सब में
घुली थी स्नेहिल-छुवन
डर अँधेरों का हमेशा
रहा डर कर
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जय
चक्रवर्ती
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