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सूरज कर्कश चीखे दम भर
दिन बरसाती धूल दोपहर
उमस कोसती
दोपहरी की, बेबस आँखों का भर आना
अलमारी की हर चिट्ठी से बेसुध होकर फिर बतियाना
राह देखती क्यों उसकी
ये पगली साँकल
रह-रह हिल कर
चुप-चुप दिखती-सी
पलकों में कब से एक पता बसता है
जाने क्यों हर आनेवाला राह बताता-सा लगता है
पलकें राह लिये जीतीं हैं
बढ़ जाता
हर कोई सुनकर
गुच्ची-गड्ढे
उथले रिश्ते आपसदारी कीचड़-कीचड़
पेड़-पेड़ पर दीमक-बस्ती घाव हृदय के बेतुक बीहड़
बोझिल क्षण ले मन का बढ़ना
नम पगडंडी
सहम-बिदक कर
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सौरभ पांडेय
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