पीर है ठहरी ह्रदय में
जाँचती
द्वन्द या दुविधा दृगों से बाँचती
आस के उत्कल बसन्ती थे कभी
रात ठहरी है भुजाओं में अभी
श्वास में खंजर
हवाएँ काँपतीं
प्रीत के पन्ने सभी निकले फटे
घाव थे कल तक दबे वे सब खुले
पट्टियाँ फिर भी
व्यथाएँ बाँधतीं
रोकती मुझको मेरी ही मर्जियाँ
दौड़ती है पसलियों में बर्छियाँ
दस्तकें फिर भी
कहा ना मानतीं
बंसवट तो है सुगंधों से लदे
हम कहीं गहरे कुँए में थे धँसे
दर्द कितना है
ये कैसे नापतीं
- डॉ रंजना गुप्ता
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