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६. ४. २०१५-

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मैं अकेला ही चला हूँ

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मैं अकेला ही चला हूँ
साथ लेकर बस हठीलापन।

एक जिद है बादलों को
बाँधकर लाऊँ यहाँ तक
खोल दूँ
जल के मुहाने
प्यास फैली है जहाँ तक

धूप में झुलसा हुआ फिर
खिलखिलाए नदी का यौवन।

सामने जाकर विषमताएँ
समन्दर से कहूँगा
मरुथलों में
हरित-वसना
छन्द, लिखकर ही रहूँगा

दर्प मेघों का विखण्डित कर
रचूँ मैं बरसता सावन।

अग्निगर्भा प्रश्न प्रेषित
कर चुका दरबार में सब
स्वाति जैसे
सीपियों को
व्योम से उत्तर मिले अब

एक ही निश्चय छुए अब दिन
सुआ-पंखी सभी का मन

- रमेश गौतम

 

इस सप्ताह

गीतों में-

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रमेश गौतम

अंजुमन में-

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शंभुनाथ तिवारी

छंदमुक्त में-

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अनिल कुमार पुरोहित

कुंडलिया में-

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कृष्णनंदन मौर्य

पुनर्पाठ में-

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शुभम

पिछले सप्ताह
३० मार्च २०१५ के अंक में

गीतों में-

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मधुकर
गौड़

अंजुमन में-

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पंकज मिश्र वात्स्यायन

छंदमुक्त में-

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सुशांत सुप्रिय

क्षणिकाओं में-

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रामशिरोमणि पाठक

पुनर्पाठ में-

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सौरभ आर्य

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
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