फिर बिछलती साँझ ने
भरमा दिया
लेकर तुम्हारा नाम
बहककर है आ
गया मेरे दुआरे
अन्य बागों से
मधुर
मलयी पवन
बिछ रहे पथ में
अतुल विश्वास लेकर
किस अदेखे ताल से ये
भीगकर
आये नयन
हर सुलगते शब्द ने
आकर किया है
फिर मुझे बदनाम
दूर शाखों में बसी
वह गंध भरमाती रही है
बंद पलकों में तुम्हारी
याद तरसाती
रही है
इक सुखद अहसास है
सालता मुझको अजाना
अधजनी अनुभूतियों में
आस ललसाती
रही है
अनियंत्रित
पग कसकते
चाहते विश्राम
- सुरेश पांडा |