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देखो साधो
समय-बिरछ पर
नई धूप-कोंपल उग आई
*
पिछले दिन सब बुढ़ा गये थे
अंतिम दिन भी झड़ा रात कल
टेर रही है नई छाँव को
देखो, यह नवजाई कोंपल
*
इतने दिन चुप रहा
आज फिर
ऋतुपंछी ने सोहर गाई
*
आज सुबह से चली हवा जो
घुप सोनल है - मिठबोली है
साधू ने भी बड़े घाट के
मंदिर की खिड़की खोली है
*
धुंध-कुहासे छँटे
सो-रहे सूरज ने
फिर ली अँगड़ाई
*
पगडंडी पर बिछी ओस भी
हुई अचानक सोनबरन है
साँसों की आवाजाही में
नेहभरा इक अपनापन है
*
परबत के उस पार
झील पर
कहीं बज रही है शहनाई
*
- कुमार रवीन्द्र |