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२२. १२. २०१४-

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ये शहर तो

     

ये शहर तो
रेत से उजले चमकते हैं

आदमी तो खोज में
जल की भटकता है
दोपहर क्या दिन सुबह
से ही अखरता है

साँझ से ही
मन उलूकों के उछलते हैं

धूप महलों में प्रिये
वातास के झोंके
कौन जाने कब उठेगी
साँस मुँह धोके

राजपथ
पगडंडियो के तन कुचलते हैं

इस महल में आग
हँसती लोग जलते हैं
और हँस-हँस कर
सियासत खेल चलते हैं

चाँदनी
तन निर्वसन कितने मचलते हैं

- ब्रजनाथ श्रीवास्तव

इस सप्ताह

गीतों में-

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ब्रजनाथ श्रीवास्तव

अंजुमन में-

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खुर्शीद खैराड़ी

छंदमुक्त में-

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मीता दास

हाइकु में-

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प्रियंवरा

पुनर्पाठ में-

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सलीम शेख

पिछले सप्ताह
 १५ दिसंबर २०१४ के अंक में

गीतों में-
अनिल मिश्रा

अंजुमन में-
संदीप पांडेय

छंदमुक्त में-
महेश द्विवेदी

दोहों में-
कर्ण बहादुर

पुनर्पाठ में-
राजेश श्रीवास्तव

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी