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कैसे कह
दूँ, प्रिय तुम्हारी
याद नहीं आती
आती है लेकिन कहने में
लाज बहुत आती।
तेरे भेजे कम्बल देते
नहीं तनिक गरमाहट
पल-छिन में आँखें खुल जातीं
आहट की अकुलाहट
सुबह हुई तो आँख उनींदी
बात बहुत कह जाती।
सिसक-सिसक कर चूल्हा रोये
जब भी भात पकाऊँ,
आँसू चूल्हे के या मेरे
फर्क नहीं कर पाऊँ
क्या देखूँ अदहन
अदहन तो
खुद ही हूँ बन जाती
'मनिआडर' पाकर बाबूजी
गेंदा जैसे खिलते
बच्चे टाफी, बिस्कुटपाकर
गुब्बारों सा 'फुलते'
खुशी पिघलकर रात अकेले
तकिए से बतियाती
- ओम धीरज |