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कभी किसी
दिन घर भी आओ |
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आते-जाते ही मिलते हो,
भाई थोड़ा वक्त निकालो
कभी किसी दिन घर भी आओ!
चाय पियेंगे, बैठेंगे कुछ देर
हँसेंगे बतियाएँगे
कुछ अपनी, कुछ इधर-उधर की
कह–सुन मन को बहलाएँगे
बीच रास्ते ही मिलते हो
भाई थोड़ा वक्त निकालो
कभी किसी दिन घर भी आओ!
मिलना-जुलना बात-बतकही,
हँसी-ठिठोली सपन हुए सब
बाँट-चूँटकर खाना–पीना
साझे दुख-सुख हवन हुए सब
रोज भागते ही मिलते हो
भाई थोड़ा वक्त निकालो
कभी किसी दिन घर भी आओ!
ड्यूटी, टिफिन, मशीन, सायरन
जुता इन्हीं में जीवन सारा
जो है अपना दर्द बंधुवर
शायद वो ही दर्द तुम्हारा
बस मिलने को ही मिलते हो,
भाई थोड़ा वक्त निकालो
कभी किसी दिन घर भी आओ!
- जय चक्रवर्ती |
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इस सप्ताह
गीतों में-
अंजुमन में-
छंदमुक्त में-
माहिया में-
पुनर्पाठ में-
पिछले
सप्ताह
दीपावली के
अवसर पर
२०
अक्तूबर २०१४ के अंक में
गीतों, गजलों,
छंदमुक्त, दोहों,
कहमुकरी, माहिया, सरसी तथा हाइकु छंदों और हास्य व्यंग्य की
विधाओं में- विभिन्न रचनाकारों की
ढेर-सी काव्य रचनाएँ।
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