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सुई |
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सुबह उधेड़े शाम उधेड़े
बजती हुई सुई
सीलन और धुएँ के खेतों
दिन भर रूई चुनें
सूजी हुई आँख के सपने
रातों सूत बुनें
आँगन के उठने से पहले
रचदे एक कमीज रसोई
एक तलाश पहन कर भागे
किरणें छुई-मुई
बजती हुई सुई
धरती भर कर चढ़े तगारी
बाँस-बाँस आकाश
फरनस को अगियाया रखती
साँसें दे दे घास
सूरज की साखी में बँटते
अँगुली जितने आज और कल
बोले कोई उम्र अगर तो
तीबे नई सुई
बजती हुई सुई
- हरीश भादानी |
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