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आदमी अब
भीड़ में |
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अंधेर के आगे बुझी कंदील
होता जा रहा है
आदमी अब भीड़ में
तब्दील होता जा रहा है
बाँचते रघुवर नहीं अब
पत्थरों की वेदनाएँ
कौरवों सी हो रही हैं
भरत की संवेदनाएँ
धीरे-धीरे सूखती-सी
झील होता जा रहा है
लग रहे संबंध सारे
लीक से हटते हुए-से
ऊर्ध्वगामी हो रहे हम
मूल से कटते हुए-से
आसमां में चीखती सी
चील होता जा रहा है
भूलते हम यांत्रिकी में
पूर्वजों की मान्यताएँ
खोज में विज्ञान की अब
खो रही सारी प्रथाएँ
फैशनों के नाम पर
अश्लील होता जा रहा है
- बृजेश द्विवेदी अमन |
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इस सप्ताह
गीतों में-
अंजुमन में-
छंदमुक्त में-
कुंडलिया में-
पुनर्पाठ में-
पिछले
सप्ताह
मातृ नवमी
के अवसर पर माँ को समर्पित
२९ सितंबर २०१४
के
मातृ विशेषांक में
गीतों गजल,
छंदमुक्त, दोहे, क्षणिका तथा हाइकु में- विभिन्न रचनाकारों की
चालीस से अधिक काव्य रचनाएँ।
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