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दस रुपये की
कठपुतली है |
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दस रुपये की कठपुतली है
टेडीबियर हजार का
कसने लगा गले में फंदा
'ग्लोबल' के व्यापार का
आलू भरे पराठे भूले
जीरा डाला छाछ
'पिज़्जा-बर्गर'अच्छे लगते
'कोलड्रिंक' के साथ
'स्लाइज-माज़ा' मन को भाये
आम लगे बेकार का
चटनी और मुरब्बे फीके
'सास-जैम' की धूम
लंबा 'पेग' चढा कर 'डाली'
रही नशे में झूम
'पानी-पानी' जिसके आगे
झोंका सर्द बयार का
क्यारी-क्यारी उगे 'कैक्टस'
गायब हुए गुलाब
लोक संस्कृति लगती जैसे
दीमक लगी किताब
भूल गये इतिहास पुराना
हम अपने बाज़ार का
- शैलेन्द्र शर्मा |
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इस सप्ताह
गीतों में-
अंजुमन में-
छंदमुक्त में-
मुक्तक में-
पुनर्पाठ में-
पिछले सप्ताह
पितृपक्ष के अवसर पर पिता
को समर्पित
१५ सितंबर २०१४ के
अंक
में
गीतों गजल,
छंदमुक्त, दोहे, क्षणिका तथा हाइकु में- विभिन्न रचनाकारों की
चालीस से अधिक काव्य रचनाएँ।
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