|
कजरी, चैता की धुन पर
बल खाती मिलती है।
हिंदी, खेतों खलिहानों में
गाती मिलती है।
मर्यादा तुलसी की
मन की लागी
मीरा की
नटखट कान्ह सूर की
उलटी कहन कबीरा की
रहिमन के मुख
नीति–वचन दुहराती मिलती है
हिंदी खेतों खलिहानों में
गाती मिलती है।
आशिष बनकर झरती
बूढ़ी माँ की बोली में
नेहों के महुये सी बिछती
हँसी–ठिठोली में
सखी–सगी बन
मेड़ों पर बतियाती मिलती है
हिंदी, खेतों खलिहानों में
गाती मिलती है।
कच्छप वाली लगन लिये
नित आगे ही बढ़ती
साथ पुरातन को ले
बिम्ब नये भी यह गढ़ती
नगर–ग्राम
आखर की अलख जगाती मिलती है
हिंदी, खेतों खलिहानों में
गाती मिलती है।
- कृष्ण नन्दन मौर्य |