फिर किसी के
घने काले कुंतलों-सी
घिर रही उन्मन
हृदय के कुंजवन में
आज यह बरसात वाली शाम
पारिजातों की विरल परछाइयों में
राह भूले ऐन्द्रजालिक की भटकती मोहिनी सी
अस्तमित रवि की
सुनहरी किरन उलझी
फिर अरूप अनाम
फिर किसी के
अलक्तक रंजित पगों के
नूपुरों की मृदु क्वणन से
खिल उठा
यह गंधमादन
प्राण का निस्पंद हरसिंगार
कौन-सी उद्दाम
उच्छृंखल तरंगे
कर गयीं इस विजन मन के तीर का संस्पर्श
जिससे
विनत नयनों से
कपोलों पर ढुलकते मोतियों से
वे विदाई के सलज जलबिन्दु
आकर भर गये फिर
रिक्त सुधियों का मसृण सीमान्त
प्यासे मेघ-सी
घिरकर न बरसीं
तृप्त की कादम्बिनी उन्मन घटाएँ
एक पल भी
रह गया सूखा
अधूरी लालसाओं का विरस मरुप्रांत
1
- देवेन्द्र शर्मा इंद्र |