एक समय था
सच्चाई तुम अंतस में बसती थीं।
मन-मंदिर खंडहर अब
सूना लगता है,
ज़र्रा-ज़र्रा ईंटा-पत्थर
रूना लगता है।
एक समय था
मन में मेरे तुम देवी-सी सजती थीं।
बदल गई हो तुम कितना
कहाँ जानती हो,
मेरे दिल को घर अपना
अब कहाँ मानती हो?
एक समय था
नस-नस में तुम गंगा-सी बहती थीं।
छद्म भेष में चोर-लुटेरे
अब खुले घूमते हैं,
गीता छूकर लोग सफ़ेद
झूठ बोलते हैं।
एक समय था
जब निर्भय तुम झूठ न सहती थीं।
- अजय तिवारी |