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३०. ६. २०१४

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छेदों वाला पाल बुना रे

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मनसुख प्यारे, मनसुख प्यारे
नहीं फँसी है एक भी मछली
तूने कैसा
जाल बुना रे

भाषण पूरा तो सुन भाई
सभा अभी तो शुरू हुई रे
देख बहलती और सहमती
परजा जैसे
छुई मुई रे

मीठे बोलों से ही कड़वा-
राजा ने ये
हाल बुना रे

जैसी भी जिसकी है मरजी
वैसे ही वो वार करे अब
बचें अगर पहुँचें उस तट तक
कैसे सागर पार करें अब

नई नाव का भी तूने तो
छेदों वाला
पाल बुना रे

- प्रदीप कांत

इस सप्ताह

गीतों में-

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प्रदीप कांत

अंजुमन में-

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अनिरुद्ध सेंगर

छंदमुक्त में-

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नरेश अग्रवाल

कहमुकरी में-

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आराधना द्विवेदी

पुनर्पाठ में-

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पंकज कोहली

पिछले सप्ताह
२३ जून २०१४ के अंक में

गीतों में-
पवन प्रताप सिंह पवन

अंजुमन में-
अनिल कुमार जैन

छंदमुक्त में-
स्वर्णलता ठन्ना

छोटी कविताओं में-
डॉ. शैलेष गुप्त वीर

पुनर्पाठ में-
निशांत कुमार

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी
   
 

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