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कितने आगे
निकल गये हम,
पनघट छूट गया।
याद गाँव की बहुत सताई
मनघट टूट गया।
शहरों के जंगल में कोई
अपना नहीं मिला।
देख देखकर खुश होता वह,
अब ना कहीं मिला।
दूर हुआ अपनी माटी से
घट-घट फूट गया।
खटिया और चौपाल
खो गई, कहीं तन्हाई में।
फूट-फूटकर आँखें रोईं
सदा जुदाई में।
भरा हुआ पानी का मटका
धम्म से छूट गया।
नीम-निबौली,पीपल बरगद
सबके सब अपने।
देखे थे वो खुली आँख से
बचपन में सपने।
सोन चिरैया, मैना, तोता
पपीहा रूठ गया।
छूट गये सब पोखर झरने
मंदिर ताल तलैया।
बड़े दिनों में आती दादी
लेती खूब बलैया।
मिट्टी छूटी, चिट्ठी छूटी
सपना टूट गया।
-सुरेन्द्र
शर्मा |