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जैसे रूई
धुनें जुलाहे,
श्रमिक अँधेरों को धुनते हैं
किरणों की चादर बुनते हैं!
एक उम्र के जितनी लम्बी
दुर्घटना बन कर जीते हैं।
सब कुछ पा कर भी रीते हैं।
पंछी बन कर तिनका-तिनका
निज अस्तित्व-बोध चुनते हैं।
अपने सपनों की राहों में
सदियों से बस खड़े हुए हैं
बुत जैसे यों गड़े हुए हैं,
मानों कोई मील का पत्थर!
इतिहासों से यह सुनते हैं!
गहन तिमिर में सज़ा काटते
किसी उजाले के अपराधी,
भुगत रहे हैं निज बरबादी
स्वयं एक दिन विस्फोटित हो
कीट-पतंगों-सा भुनते हैं
-कृष्ण
सुकुमार |