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१४. ४. २०१४

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श्रमिक अँधेरों को धुनते हैं

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जैसे रूई धुनें जुलाहे,
श्रमिक अँधेरों को धुनते हैं
किरणों की चादर बुनते हैं!

एक उम्र के जितनी लम्बी
दुर्घटना बन कर जीते हैं।
सब कुछ पा कर भी रीते हैं।
पंछी बन कर तिनका-तिनका
निज अस्तित्व-बोध चुनते हैं।

अपने सपनों की राहों में
सदियों से बस खड़े हुए हैं
बुत जैसे यों गड़े हुए हैं,
मानों कोई मील का पत्थर!
इतिहासों से यह सुनते हैं!

गहन तिमिर में सज़ा काटते
किसी उजाले के अपराधी,
भुगत रहे हैं निज बरबादी
स्वयं एक दिन विस्फोटित हो
कीट-पतंगों-सा भुनते हैं

-कृष्ण सुकुमार

इस सप्ताह

गीतों में-

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कृष्ण सुकुमार

अंजुमन में-

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मनोहर विजय

छंदमुक्त में-

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दिगंबर नसवा

दोहे में-

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प्रवीण कुमार अग्रवाल

पुनर्पाठ में-

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अरुणा घवाना

पिछले सप्ताह
७ अप्रैल २०१३ के अंक में

गीतों में-
शशि पाधा

अंजुमन में-
सुरेन्द्रपाल वैद्य

छंदमुक्त में-
भास्कर चौधरी

कुंडलिया में-
ओमप्रकाश तिवारी

पुनर्पाठ में-
अंशुमान शुक्ला

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी
   
 

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