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जिस आखर से खुले
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जिस आखर से
खुले
उसी पर बंद हो गये
सुख के सपने
कुंडलिया के छंद हो गये
चढ़ी भोर के माथे पर
तपती दोपहरी
संन्ध्या के अधरों पर भी
अनबन आ ठहरी
रातों के बिस्तर पर काबिज
द्वंद्व हो गये
सुर हैं उतरे हुये
आपसी संवादों के
गान अनसुने रहे
सुलह की फरियादों के
बोल प्यार के
बिसर चुके अनुबंध हो गये
चाह दौड़ती
बाँधे कई सफर पाँवों में
भाव भटकते रहे
व्यस्तता के गाँवों में
फुरसत के पल
कस्तूरी की गंध हो गये
-कृष्णनंदन
मौर्य |
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