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कैसे बीते काले दिन
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ज़रा पूछिए इन लोगों से,
कैसे बीते काले दिन।
फुटपाथों की सर्द सेज पर,
क्रूर कुहासे वाले दिन।
दिनकर, जो इनका हमजोली,
वो भी करता रहा ठिठोली।
तहखाने में भेज रश्मियाँ,
ले आता कुहरा भर, झोली।
गर्म वस्त्र तो मौज मनाते,
इन्हें सौंपते छाले दिन।
दूर जली जब आग देखते,
नज़रों से ही ताप सेंकते
बैरन रात न काटे कटती,
गात हवा के तीर छेदते।
इन अधनंगों ने गठरी बन,
घुटनों बीच सँभाले दिन।
धरा धुरी पर चलती रहती,
धूप उतरती चढ़ती रहती।
हर मौसम के परिवर्तन पर,
कुदरत इनको छलती रहती।
ख्वाबों में नवनीत इन्होंने,
देख, छाछ पर पाले दिन।
- कल्पना रामानी |
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