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१७. २. २०१४

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सगुनपंछी

 ११११११११११ सगुनपंछी
यहाँ अब क्या करें आकर
न पानी है, न दाना है

पुराने अब नहीं हैं
पेड़ वे हरिताभ छाया के
फले हैं फल यहाँ पर छद्म बौनी लोकमाया के
सगुनपंछी यहाँ अब क्या करें बसकर
न डाली है, ठिकाना है

सरोवर जलभरे
अब तो नही हैं गाँव में कोई
लिए आकाश सिर पर यह टिटहरी रात भर रोई
सगुनपंछी यहाँ अब क्या करें हँसकर
न मौसम है, तराना है

शिकारी रात भर
दिनभर यहाँ पर जाल डाले हैं
सपेरे बीन पर गाते नचाते नाग काले हैं
सगुनपंछी यहाँ अब क्या करें रोकर
न दादा है, न नाना है

- बृजनाथ श्रीवास्तव

इस सप्ताह

गीतों में-

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बृजनाथ श्रीवास्तव

अंजुमन में-

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आशीष नैथानी सलिल

छंदमुक्त में-

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अरविंद कुमार

मुक्तक में-

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मेघ सिंह मेघ

पुनर्पाठ में

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अशोक चक्रधर


पिछले सप्ताह
१० फरवरी २०१३ के अंक में
 

गीतों में-
जयप्रकाश नायक

अंजुमन में-
अमित दुबे

छंदमुक्त में-
शशिकांत सिंह शशि

दोहों में-
कुलभूषण व्यास

पुनर्पाठ में-
धनपत राय झा

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी
   
 

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