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२७. १. २०१४

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कोई और छाँव देखेंगे

 ११११११११११ कोई और छाँव देखेंगे
लाभों घाटों की नगरी तज
चल दे और गाँव देखेंगे

सुबह सुबह के
सपने लेकर, हाटों हाटों खाए फेरे
ज्यों कोई भोला बंजारा पहुँचे कहीं ठगों के डेरे
इस मंडी में ओछे सौदे कोई और
भाव देखेंगे

भरी दुपहरी
गाँठ गँवाई, जिससे पूछा बात बनाई
जैसी किसी गाँव वासी की महानगर ने हँसी उड़ाई
ठौर ठिकाने विष के दागे कोई और
ठाँव देखेंगे

दिन ढल गया
उठ गया मेला, खाली रहा उम्र का ठेला
ज्यों पुतलीघर के पर्दे पर खेला रह जाए अनखेला
हार गए यह जनम जुए में कोई और
दाँव देखेंगे

किसे बताएँ
इतनी पीड़ा, किसने मन आँगन में बोई
मोती के व्यापारी को क्या, सीप उम्रभर कितना रोई
मन के गोताखोर मिलेंगे कोई और
नाव देखेंगे


-डॉ. तारा प्रकाश जोशी

इस सप्ताह

गीतों में-

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डॉ. तारा प्रकाश जोशी

अंजुमन में-

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राज सक्सेना

छंदमुक्त में-

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रेनू यादव

घनाक्षरी में-

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रूद्रपाल गुप्त सरस

पुनर्पाठ में

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अब्बास रजा अल्वी

पिछले सप्ताह
२० जनवरी २०१३ के अंक में

गीतों में-
रविशंकर मिश्र रवि

अंजुमन में-
सुशील गौतम

छंदमुक्त में-
संदीप रावत

हाइकु में-
रजनी भार्गव

पुनर्पाठ में-
सादिक आरिफ और शैलजा चंद्रा

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी
   
 

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