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जैसे कभी
पिता चलते थे |
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जैसे कभी पिता चलते थे
वैसे ही अब मैं चलता हूँ!
भरी सड़क पर बाएँ-बाएँ
बचता-बचता डरा-डरा-सा
पौन सदी कंधों पर लादे
भीतर-बाहर
मरा-मरा सा
जलकर सारी रात थका जो
अब उस दीये-सा जलता हूँ!
प्रभु की कृपा नहीं कम है ये
पौत्रों को टकसाल हुआ हूँ
कुछ प्यारे भावुक मित्रों के
माथे लगा
गुलाल हुआ हूँ
मिलन-यामिनी इस पीढ़ी को सौंप
स्वयं बस वत्सलता हूँ!
कभी दुआ-सा, कभी दवा-सा
कभी हवा-सा समय बिताया
संत-असंत रहे सब अपने
केवल पैसा
रहा पराया
घुने हुए सपनों के दाने
गरम आँसुओं में तलता हूँ!
-भारत भूषण |
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इस सप्ताह
गीतों में-
अंजुमन में-
छंदमुक्त में-
हाइकु में-
पुनर्पाठ में-
पिछले सप्ताह
९ दिसंबर २०१३ के अंक
में
गीतों में-
अंजुमन में-
छंदमुक्त में-
मुक्तक में-
पुनर्पाठ में-
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