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मैंने अपना
गाँव लिखा |
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राह में चलते
और टहलते मैंने
अपना गाँव लिखा
भरी भीड़ में पगडंडी पर
चलते नंगे पाँव लिखा
बूढ़ी दादी
के अन्तस में
पलता एक खयाल लिखा
मंदिर सा पूजा घर अपना
मैंने अपनी ठाँव लिखा
बादल की
मनुहारें करता
गाता एक किसान लिखा
बरखा की आशा में चिट्ठी
लिखता सारा गाँव लिखा
बूढ़ा बरगद,
पोखर-झरना
नदी किनारे नाव लिखा
माटी के टीलों पर चढ़ना
और फिसलना चाव लिखा
भाईचारे
बीच पनती
रिश्तों की चौपाल लिखा
सुख दुःख में साथी सब अपने
कभी धूप कभी छाँव लिखा
तन को
माटी का घर लिक्खा
जनम मरण के नाम लिखा
नदी किनारे ढलता सूरज
चलता उल्टे पाँव लिखा-सुरेन्द्र
शर्मा |
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इस सप्ताह
गीतों में-
अंजुमन में-
छंदमुक्त में-
लंबी कविताओं में-
पुनर्पाठ में-
पिछले सप्ताह
२५ नवंबर २०१३ के अंक
में
गीतों में-
अंजुमन में-
छंदमुक्त में-
छोटी कविताओं में-
पुनर्पाठ में-
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