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२३. ९. २०१३

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याद

                

इस जगह आकर पुराने दिन
याद फिर से आ रहे हैं

पैंठ की सहजात भीड़े
और मेले
खो गए
पूर्वाग्रही से अंधड़ों में
खा रही है प्राण को दीमक निरंतर
आज पीपल और तुलसी की जड़ों में

वे खुले गोबर लिपे आँगन
हर पहर बतिया रहे हैं

शोर में डूबे नगर में
उग रहे हैं
अनवरत कंक्रीट के
जंगल असीमित
बढ़ रहा है इन अँधेरे जंगलों में
हर तरफ विकराल दावानल अबाधित

लौट जाने के लिए अनगिन
भाव अब बहुरा रहे हैं

इस तरह अब चल पड़ी
पछुआ हवाएँ
देह-मन दोनों
दरकते जा रहे हैं
जामुनी मुस्कान, आमों की मिठासें
सभ्यतम संकेत ढकते जा रहे हैं

सावनी धन के हजारों ऋण
आँख को बिरमा रहे हैं

-शचीन्द्र भटनागर

इस सप्ताह

गीतों में-

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शचीन्द्र भटनागर

अंजुमन में-

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राणा प्रताप सिंह

छंदमुक्त में-

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अम्बिका दत्त

दोहों में-

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कुमार गौरव अजीतेन्दु

पुनर्पाठ में-

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पुष्यमित्र

पिछले सप्ताह
१६ सितंबर २०१३ के अंक में

गीतो में-

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जगदीश पंकज

अंजुमन में-

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प्रभा दीक्षित

दिशांतर में-

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अमेरिका से लावण्या शाह

हाइकु में-

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सरस्वती माथुर

पुनर्पाठ में-

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अखिलेश सिन्हा

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी
   

 

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