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कबूतर लौटकर
नभ से |
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कबूतर लौटकर
नभ से सहमकर बुदबुदाते हैं
वहाँ पर भी किसी बारूद का
षडयंत्र जारी है
हवा में भी
बिछाया जा रहा घातक सुरंगों को
धरा से व्योम तक पहुँचा रहे
कुछ लोग जंगों को
गगन में गंध फैली है किसी नाभिक रसायन की
धरा पर दीखती विद्ध्वंस की
व्यापक तय्यारी है
वहाँ पर शांति,
सह-अस्तित्व जैसे शब्द बौने हैं
यहाँ पर सभ्यता के हाथ
एटम के खिलौने हैं
वहाँ से पंचशीलों में लगा घुन साफ़ दिखता है
मिसाइल के बटन से जुड़ गयी
किस्मत हमारी है
शांति की आस्थाओं
को चलो व्यापक समर्थन दें
युद्ध से जल रही भू को नया
उद्दाम जीवन दें
किसी हिरोशिमा की फिर कहीं न राख बन जाये
युद्ध तो युद्ध केवल युद्ध है
विद्ध्वंसकारी है
-जगदीश पंकज |
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इस सप्ताह
गीतो में-
अंजुमन में-
दिशांतर में-
हाइकु में-
पुनर्पाठ में-
पिछले सप्ताह
हिन्दी दिवस विशेषांक में
गीतों में-
नंद
चतुर्वेदी,
अश्विनी कुमार विष्णु,
कन्हैयालाल वक्र,
कृष्णकुमार तिवारी किशन,
डॉ.
जगदीशचंद्र शर्मा,
तारादत्त निर्विरोध,
डॉ.
ताराप्रकाश जोशी,
ब्रजेश नीरज,
डॉ.
भावना तिवारी,
राजेन्द्र सिंह कुँवर फरियादी,
शरद
तैलंग।
दोहों में-
विश्वंभर शुक्ल,
श्यामल सुमन,
शशिकांत गीते,
संदीप सृजन,
सुबोध श्रीवास्तव।
कुंडलिया
में-
अम्बरीश श्रीवास्तव,
ज्योतिर्मयी पंत,
पंडित हृदयेश नारायण "हुमा"।
मुक्तक में-
कुँवर प्रीतम,
ताऊ
शेखावटी,
राजेश राज,
सुरेश चंद्र सर्वहारा।
अंजुमन में-
कल्पना रामानी,
शशि
पुरवार,
सुरेन्द्र पाल वैद्य।
छंदमुक्त
में- नेहा
विजय,
मंजुल भटनागर।
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