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भरत-की
गाथा, कहानी
आर्य-जीवन की
हाँ यही धरती, यही धरती !
प्रकृति में उमड़ा हुआ उल्लास
मन मोहे
नद-महानद सरि-सरोवर
माधुरी सोहे
रुक्षता में सरसता-की
लहर-सी झरती !
नित करोड़ों आस्थाएँ कर
रहीं पोषण
शब्द का अध्यात्म तीनों
लोक का भूषण
दृश्य में अदृश्य-का
दर्शन मिली करती !
ठगिनी है मायाविनी माया
सभी कहते
सत न डिगने दें भले ही
वंचना सहते
विश्व में बन्धुत्व के
रस-रंग ही भरती !
राजकुल से राजनेता तक
बदल देखे
स्वर्णयुग क्या अकालों के
छद्म-छल देखे
सर्वहितकारी व्यवस्था
को रही वरती !!!
--अश्विनी कुमार विष्णु |