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३. ६. २०१३

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पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं

 

 

 

 

 

 

 

 

 

पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली
1
छोड़ निज
जड़ बढ़ रही हैं, नए मानक गढ़ रही हैं.
नहीं बरगद बन रही ये- पतंगों सी चढ़ रही हैं
चाह लेने की असीमित- किन्तु
देने की कंगाली.
1
नेह-नाते
हैं पराये, स्वार्थ-सौदे नगद भाये
फेंककर तुलसी घरों में- कैक्टस शत-शत उगाए
तानती हैं हर प्रथा पर अरुचि की
झट से दुनाली
1
भूल, देना-
पावना क्या? याद केवल चाहना क्या?
बहुत जल्दी 'सलिल' इनको- नहीं मतलब भावना क्या?
जिस्म की कीमत बहुत है. रूह की
है फटेहाली
1
- आचार्य संजीव सलिल

इस सप्ताह

गीतों में-

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आचार्य संजीव सलिल

अंजुमन में-

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उषा यादव 'उषा'

नई हवा में-

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सुदेशना रूहान

कुंडलिया में-

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सुभाष मित्तल सत्यम

पुनर्पाठ में-

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मीनाक्षी धन्वन्तरि

पिछले सप्ताह
२७ मई २०१३ के अंक में

गीतों में-
ओम नीरव

अंजुमन में-
नीरज गोस्वामी

छंदमुक्त में-
अजय ठाकुर

क्षणिकाओं में-
मनु मनस्वी

पुनर्पाठ में-
सुमन कुमार घई

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी

 

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