श
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शान्ति के
शतदल-कमल तोड़े गए
सभ्यता की इस पुरानी झील से
लोग जो ख़ुशबू गए थे खोजने
लौटकर आए नहीं
तहसील से
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चलो उल्टे पाँव भागें
यह नगर रंगीन अजगर है
होम होने के लिए आए जहाँ हम
यज्ञ की वेदी नहीं
बारूद का घर है
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रोशनी के जश्न की
ज़िद में हुए वंचित
द्वार पर लटकी हुई कंदील से।
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हवा-आँधी बहुत देखी
धूल है बस धूल है, बादल नहीं।
प्यास औंधे मुँह पड़ी है घाट पर
इस कुएँ में
बूँद भर भी जल नहीं।
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दूध की
अंतिम नदी का पता जिसको था,
मर गया वह हंस लड़कर चील से।
-- श्याम नारायण मिश्र |