कब तक यह उन्माद चलेगा
कितना कौन पिये !
बाँह बाहुबल
झुठलाने को तुली हुई है खुली हथेली,
गाँठी गाँठी सधी हुई है रहमहीन वर्तुली पहेली,
अँगुली अँगुली खुली चुनौती
कितना
कौन जिये !
कब तक यह उन्माद चलेगा
कितना कौन पिये !
दया धर्म के
दिन झुठला कर बाँह चढी है नख की पीड़ा,
मन मंसूबे खोखल करता कुतर रहा दिल घुन का कीड़ा,
छिन छिन छलनी होती छाती
कितना
कौन सिये !
कब तक यह उन्माद चलेगा
कितना कौन पिये !
- भोलानाथ |