श
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बैठने देते नहीं सुख-चैन से
ये गीत-छौने
आग्रही आर्त
गंध व्यापी घाटियों में खींच ले जाते अचानक
हाथ में दे प्रीति-पोथी बैठ जाते सामने ये
और पढ़वाते कथानक
हम हुए हैं हाथ इनके
चाभियों
वाले खिलौने
खींच लाते विसंगतियाँ
सामने ये और बरबस डाल देते हैं झमेले में
फूटते बम की तरह अंतःकरण में हो भले
ही भीड़ में अथवा अकेले में
हठ पकड़ते फोड़ भांडा
खेल हैं
जिनके घिनौने
शीश पर अपने धरे अमृत-
कलश ये घूमते हैं, अति-अप्रिय इनको कलुष है
दृष्टि में छोटे कभी राजा भगीरथ तो
निशाने पर कभी भोगी नहुष हैं
पोतते कालिख किसी
के मुख
लगाते हैं दिठौने
- मृदुल शर्मा |